अहिरवार समाज की संस्कृति

 

1.        अहिरवार संस्कृति में समन्यवाद. अहिरवार समाज किसी धर्म, जाति व पन्थ की विरोधी नही रही है। जंहा इस ने वैदिक व पौराणिक विचारो को अपनाया वंहा मध्ययुगीन वैष्णवेतर विचारधाराओं के भक्ति योग को भी स्वीकार किया है। इसी प्रकार इस जाति के लोगो पर सिद्वो एवम् नाथपंथी योगियो का भी प्रभाव रहा है जो प्रायः हिन्दू धर्म की नीची समझी जाने वाली जातियों के ही व्यक्ति थे। इन के कुछ सिद्वान्त जैसे जाति-पाति के भेद-भाव का विरोध व गुरू की महत्वता की परम्परा को अहिरवार समाज ने स्वीकारा है।

2.       वैष्णव भक्ति आन्दोलन का अहिरवार संस्कृति पर प्रभाव. काल की दृष्टि से संत मत का आविर्भाव भक्ति आन्दोलन के बहुत बाद हुआ। अतः सन्तो पर वैष्णव भक्ति का प्रभाव आना स्वाभाविक ही था। मघ्वाचार्य, राघवाचार्य, रामानन्द आदि वैष्णव भक्ति के प्रवर्तक सन्त कबीर आदि सन्तो से बहुत पहले रह चुके थे। कबीर, रविदास, सेना, पीपा आदि प्रारम्भिक सन्तगुरू रामानन्द के ही शिष्य बताये जाते है। इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि वैष्णव भक्तो और सन्तो के सिद्वान्तो के समान अहिरवार समाज ने भी भगवत्-शरण के लिये वैष्णवो द्वारा भगवान के नामो को ही स्वीकार किया है राम, गोविन्द, हरि आदि वैष्णव भक्तो के प्रिय नाम है, अहिरवार समाज के सन्तो ने भी इन्ही नामो को लिया है। अहिरवार समाज के सन्तो और आम आदमी ने ईश्वर के अल्लाह, खुदा आदि नामो को स्वीकार करने पर भी उन्हे इतनी अधिक मान्यता नही दी है, जितनी राम, कृष्ण, हरि आदि को दी है। ईश्वर की प्रेमनुभूति की तन्मयता में अहिरवार समाज के लोग वैष्णव भक्तो द्वारा स्वीकृत ईश्वर के नाम ही लेते है।

3.       अहिरवार संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव. अहिरवार धर्म साधना में धर्मान्धता, वर्णव्यवस्था रूढिवादी परम्पराओं और जातिवाद का जो हरजस आदि गीतो तथा विभिन्न प्रकार की कहानियों और बातों में वर्णन आता है वह हिन्दु धर्म के चैरासी सिद्वो और नौ नाथो के सिद्वान्तो के आधार पर ही है। जातिवाद व वर्णव्यवस्था के विरूद्व के सिद्वान्त इस्लाम धर्म में भी मिलते है जिन का प्रभाव अहिरवार संस्कृति पर भी स्पष्ट दिखता है परन्तु अहिरवार समाज ने इन सब सिद्वान्तो की समानतता होने के बावजूद भी इस्लाम धर्म स्वीकार नही किया और वह हिन्दू धर्म में एक अछूत व शूद्र जाति ही बना रहना स्वीकार किया। जिस समय मुस्लमान भारत में विजेता के रूप में आये तो उन्होने हिन्दू धर्म की सवर्ण व उच्च जातियों पर अत्याचार किये परन्तू अहिरवार समाज पर इस लिये कोई अत्याचार नही किये क्यों कि यह जाति तो पहले से ही हिन्दू धर्म से प्रताड़ित व अत्याचार पीड़ित निर्जीव व दुर्बल जाति थी जो मुस्लिम धर्म का किसी भी प्रकार का विरोध करने की कोई क्षमता नही रखती थी। यह भी एक कारण था कि अहिरवार समाज को मुस्लिम धर्म में परिवर्तन के दौर में इस्लाम का एक हिस्सा नही बनाया गया। इस्लाम के भारत में आने के बाद सन्तो और भक्तो ने हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात की गयी जब कि अहिरवार समाज के लोग हिन्दुओ की छूआछूत नीतियों और इस्लाम के कट्टरवाद से ग्रसित होकर तड़फड़ाती जिन्दगी जीने को मजबूर ही बने रहे। यही कारण है कि हिन्दू धर्म की अध्यात्मकवादी विचारो और इस्लाम के फैलाववाद में इस जाति का कोई योगदान नही रहा जिसकी वजह से ही अहिरवार समाज के लोग इस्लाम के धर्म परिवर्तन करवाने के दौर में मुस्लिम धर्म को स्वीकार करने से दूर ही रखे गये। यही कारण है कि अहिरवार समाज में नमाज, रोजा, मूर्ति पूजा का विरोध और इस्लाम धर्म के कई सिद्वान्त मौजूद नही है। इस जाति के लोगो ने इन पर हिन्दू धर्म की उच्च जातियों द्वारा किये जा रहे अत्याचारो और छूआछूत करने के दौर में भी ईश्वर को स्मरण किया करते थे और अपने भाग्यवाद को कौसते हुये हिन्दू धर्म की भाग्यवादी व कर्मवादी सिद्वान्तो पर ही स्वीकारते रहे थे।

4.       अहिरवार संस्कृति पर एकेश्वरवाद व सूफीवाद का प्रभाव. अहिरवार समाज को हिन्दू धर्म में एक अछूत जाति के रूप में ही स्वीकार किया गया परन्तु इस जाति द्वारा हिन्दू धर्म की असमानतावादी नीति के विरूद्व किसी भी प्रकार का विरोध नही करने और लगातार अत्याचारो को सहते रहने के कारण यह जाति हिन्दू समाज के एक नीचे हाशिये पर पड़ी रही। भारत, चीन,जापान, मिस्त्र, अरब, ग्रीस, फिलस्तान, बेबीलोनिया और कैल्टिक प्रदेश के धर्मो के प्राचीनतम रूपो का इतिहास देखने पर उन में बहुदेववाद की झलक मिलती है।

5.       अहिरवार संस्कृति पर सन्त रैदास पंथ का प्रभाव. सन्त मत में कबीर एक सच्चे कर्मयोगी होने के कारण वे युग युग गुरू थे। उन्होने सन्त काव्य का प्रदर्शन कर साहित्य के क्षेत्र में नव निर्माण का कार्य किया था। हिन्दु मुस्लिम एकता की जो विचार धारा आज इतनी प्रबल हो उठी है उस के मूल प्रर्वतक कबीर ही थे। यदि साहित्य व समय की दृष्टि से आकंलन किया जाये तो कबीर के उपरान्त सन्त मत अनेक पंथो में विभक्त हो गया था। कबीर पंथ के अतिरिक्त इन पंथो में रैदास पंथ, सिक्ख पंथ, दादू पंथ (17वीं शताब्दी), निरंजनी सम्प्रदाय (17वीं शताब्दी), बावरी पंथ (17वीं शताब्दी), मलूक पंथ (17-18वीं शताब्दी), दरियादासी सम्प्रदाय (17वीं शताब्दी), चरणदासी सम्प्रदाय (18वीं शताब्दी), गरीब पंथ (18-19वीं शताब्दी), पानप पंथ (18-19वीं शताब्दी), राम-स्नेही सम्प्रदाय (18-19वीं शताब्दी) आदि प्रमुख है। प्रारम्भ में इन सभी पंथो में कोई मूलभूत अन्तर नही था किन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गया इन सभी पंथो में रूढियां, विधि-निषेधो, पाखण्ड- प्रर्दशन एवम् मायाजाल आदि का समावेश होता गया। अहिरवार समाज पर रैदास पंथ का काफी असर देखने को मिलता है । सन्त रैदास जी रामानन्द की के शिष्य थे। ये कबीर के समकालीन थे। सन्त-काव्य-परम्परा में रैदास जी को विशिष्ट स्थान है। आप उच्चकोटि के सन्त थे। प्रसिद्व भक्त कवियत्री मीरा बाई सन्त रैदास जी की शिष्या थी। सन्त रैदास जी के पद श्री गुरू ग्रन्थ साहिब में संकलित है। ये अत्यंत सरल प्रव्ति के व्यक्ति थे। इन के पदो में अनुभूति की सरलता और अभिव्यक्ति की सरलता मिलती है। इन के विषय में हिन्दी साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत है -अनाडम्बर सहज शैली और निरीह आत्म-समर्पण ।

संत रविदास जी का अन्तिम पद. संत शिरोमणि रविदास जी इस गीत पद के सुनाने के उपरान्त स्वर्गवासी हो गये थे। चितोड़ के कुम्भ श्याम मन्दिर में यह गीत सन्त रविदास जी ने गाया था।

जीवन चार दिवस का मैला रे।
बांभन झूंठा, वेद भी झूंठा, झूंठा बह्ना अकेला रे।
मन्दिर भीतर मूरति बैठी. पूजति बाहर चेला रे।
लडडू भोग चढावति जनता, मूरति के ढिंग केला रे।
पत्थर मूरति कुछ नही खाती, खाते बांभन चेला रे।
जनता लूटति बांभन सारे, परभू जी देति न धेला रे।
पुण्य, पाप या पुर्नजन्म का, बांभन दीन्हा खेला रे।
स्वर्ग नरक बैकुण्ठ पधारो गुरू शिष्य या चेला रे।
जितना दान देंव गे जैसा, वैसा निकले तेला रे।
बांभन जाति सभी बहकावे, जनह तंह मचै बबेला रे।
छोड़ के बांभन, आ संग मेरे, कह विद्रोहि अकेला रे।

इसलिये अहिरवार समाज के लोगो को चार वेदो का अर्थ नही मालूम हो तो कोई बात नही है। परन्तु समझदारी, जवाबदेही, वफादारी और ईमानदारी , ये चार शब्दो का मर्म जान लेवे तो जीवन सार्थक हो जायेगा।

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