दलित मूवमेंट और सामाजिक संगठन

       
राजेश कुमार अहिरवार
आज हम दलित मूवमेन्ट पर विचार कर रहे है जिसके लिए बाबा साहेब ने अपना पूरा जीवन न्योछावर कर लिया
, दलित मूवमेन्ट जिसका प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष प्रभाव हमारे जीवन में दिन-प्रतिदिन पड़ता है । यदि इसे अच्छी तरह समझना है तो हमें हमारी जाति आधारित व्यवस्था तथा आवरण से बाहर निकलना होगा, तभी हम इसे अच्छी तरह समझ पायेंगे ।
       वर्तमान परिस्थितियों पर नजर डाले तो सबसे ज्‍वलंत मुद्दा पदोन्नती में आरक्षण है । ज्योंही आरक्षण या ऐसे किसी फायदे की बात आती है तो हम सब एक हो जाते है, लेकिन फायदा मिल जाने के बाद, जितना ज्यादा बिखराव दलित आदिवासी समाज मे दिखता है, वैसा किसी अन्य समाज में नही दिखाई देता है । दलित वर्ग अनेक जातिगत ( अहिरवार, मैघवाल, बैरवा, रैगर, बलाई, कोली, धोबी, अनेक जातियो ) व्यवस्था में बंटा हुआ है, और उसमे भी उपजातिय विभाजन नजर आता है ।
       बाबा साहेब ने कहा था कि दलित चाहे लाख सर पटक लें, जब तक वो एक साथ नही आयेंगे, तब तक इस समाज का भला नही हो सकता । डॉ. अम्बेडकर दलित आदिवासी पिछड़ो मे अंतरजातीय विवाह के सबसे बडे़ समर्थक थे । उन्होनें इस सन्दर्भ में अपनी बात कही, लेकिन बड़े दुर्भाग्य की बात है कि, आज भी हम डॉक्टर, इन्जिनियर, वकील, आई.ए.एस., आर.एस. बन जाने के बाद भी उसी जातिगत भावना से ग्रसित है । जो कुछ सुधार हुआ है वह आटे मे नमक के बराबर भी नही है ।
       आज हम अन्य उच्च वर्गो पर नजर डाले तो, साफ दिखाई देता है कि, इन्होनें अपने फायदे के लिये हमारे दलित आदिवासी उच्च शिक्षित ऑफिसर वर्ग को (शादी-विवाह) अपनाना शुरू कर दिया है । हमे इस स्थिति को बदलने के लिये अपनी जातिगत भावना से बाहर निकलकर एक-दुसरे को अपनाना होगा तथा एकजुट रहना होगा । इसके बिना हमारा विकास मुमकिन नही है ।
       यह जातिगत भावना कि समस्या हमारे जातिगत संगठनों मे भी तीव्र गति से फैली है । आज ऐसी स्थिति है कि हमारे दलित संगठन अपनी-अपनी जातियों-उपजातियों में बंटे हुए है । इसी का परिणाम है कि देश मे हमारी आबादी 30 प्रतिशत होने के बावजुद हमारी आवाज कमजोर नजर आती है । इसका मुख्य कारण दलित संगठन जातिवादी खैमे में बंटे हुए है । प्रत्येक संगठन अलग-अलग राग आलाप् रहा है ।
       एक ही मूवमेन्ट के इन जातिवादी संगठनों ने हजारों टुकडे़ कर दिये है, इसी का परिणाम है कि, हमारे विधायक, सांसद, उच्च अधिकारी होने के बावजूद हमारे अधिकारों की सुरक्षा खतरें मे पड़ी नजर आ रही है, जिसका जीता जागता उदाहरण पदोन्नती मे आरक्षण है ।
       आज लोकसभा में 543 में से 156 दलित और आदिवासी सांसद, भारतीय जनता पार्टी में 1/3 दलित आदिवासी सांसद होने के बावजूद पदोन्नती आरक्षण का मुद्दा पिछले कई वर्षो से हल नही हो पा रहा है, जबकि देश की केन्द्र सरकार ने 93 सचिव में से एक भी दलित नही है । अदालतों के निर्णय जातिय पूर्वाग्रहों से ग्रसित नजर आ रहे है । स्थिति ऐसी हो गयी है कि हजारों वर्षों से शोषण करने वाले मुहँ फुलायें, बाँहें चढ़ायें बैठे है, उन्हें दलितों व आदिवासीयों का विकास रास नही जा रहा है । हमें इस आहट को गम्भीरता पूर्वक समझने की जरूरत है । जिस तरह पदोन्नती आरक्षण के मामले मे मिशन 72 के पक्ष में आई.ए.एस., आर ए..एस. अधिकारी खुलकर सामने आ रहे है, उसी प्रकार दलित आदिवासी अधिकारीयों को भी मुकाबला करने के लिये खुलकर सामने आना होगा क्योंकि यह लड़ाई अधिकारों के साथ-साथ प्रतिनिधित्व व हक की लड़ाई है, इसलिये हमारे सामाजिक संगठनों को अपनी जातिगत भावना से बाहर निकलकर बाबा साहब के मिशन दलित मूवमेन्ट को मजबूत बनाने के लिये एक साथ मिलकर काम करना होगा, तभी हमारे अधिकारों की सुरक्षा सम्भव है । अन्यथा वो दिन दुर नही जब ये ताकतें कानून की आड़ लेकर, हमें हमारे अधिकारों से वंचित कर, पुनः गुलाम बनाने में सफल हो जायें ।
       भारत यदि 1947 तक मुगलों तथा अग्रंजों का गुलाम रहा उसका मूल कारण जातिवादी भावना, जातिवादी व्यवस्था और निजी स्वार्थ । इसी जातिवादी व्यवस्था पर सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि जातिवादी व्यवस्था देश को एकजुट रखने तथा लोकतन्त्र के लिये सबसे बड़ा खतरा है ।
       दलित आदिवासी समाज को अन्य समाज में हो रहे बदलाव पर ध्यान देना होगा । आजकल हम देखते है कि जब भी किसी व्यक्ति से जाति पूछी जाती है तो बताता है कि, ब्राह्यण, क्षत्रिय (राजपूत) वैश्य बताता है, तथा जब किसी दलित व्यक्ति को जाति पूछी जाती है तो वह दर्जनों जातियों के नाम बताने लगता है, जबकि सारे ब्राह्यण खुद को ब्राह्यण बताते है, क्षत्रिय अपनी जाति क्षत्रिय (राजपूत) बताते है, जबकि दलितों मे एक भाव देखने को नही मिलता है । स्थिति ऐसी है कि दलित कहता है कि ‘‘मैं दलित तो हूँ लेकिल फलाने से बड़ा हूँ’’ स्थिति बड़ी हास्यास्पद है, तमाम् लोग इसी उहापोह मे जिन्दगी गुजार रहे है । मगर कोई इसका हल नही ढूंढ पा रहा है ।
       वर्तमान स्थिति पर नजर डाले तो ब्राह्यणों के मोहल्लें मे सभी तरह के ब्राह्यण एक साथ मिलकर रहते है तथा क्षत्रिय, वैश्य में भी यही स्थिति है, मगर दलितों पर नजर डाले तो साफ नजर आता है कि जितनी जातिया-उपजातिया है, उतने मोहल्लें दिख जायेंगे ।
       वर्तमान स्थिति ऐसी है कि, दलित समाज शिक्षित होने के बावजूद जातिगत भावनाओं से व्यक्ति और संगठन दोनों ही इस गम्भीर बीमारी से ग्रसित है, हमें इस जातिगत भावना से बाहर निकलकर दलित आदिवासी संगठनों मे एकजुटता लानी होगी, तभी हम बाबा साहब के मिशन को आगे बढ़ा सकेंगे तथा अपने अधिकारों की सुरक्षा कर, सम्मान से जीवन जी सकेगें । 



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